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वेदक13

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 HastN13 यह त्रिगुणात्मक जगत मनकी कल्पनामात्र है। केवल यही नहीं, परमात्मा और जगत से पृथक प्रतीत होनेवाला पुरुष भी कल्पनामात्र ही है। इस प्रकार वास्तवमें असत होने पर भी अपने सत्य अधिष्ठान आपकी सत्ताके कारण यह सत्य सा प्रतीत हो रहा है। इसलिए भोक्ता, भोग्य और दोनों के संबंध को सिद्ध करने वाली इंद्रियां आदि जितना भी जगत है, सब को आत्म ज्ञानी पुरुष आत्मरूप से सत्य ही मानते हैं। सोनेसे बने हुए कड़े, कुंडल आदि स्वर्णरुप ही तो है; इसलिए उनको इस रूपमें जानने वाला पुरुष उन्हें छोड़ता नहीं, वह समझता है कि यह भी सोना है। इसी प्रकार यह जगत आत्मामें ही कल्पित आत्मासे ही व्याप्त है; इसलिए आत्मज्ञानी पुरुष इसे आत्मारूप ही मानते हैं। यह जगत अपने स्वरूप नाम और आकृति के रूप में असत है, फिर भी जिस अधिष्ठान-सत्ता की सत्यतासे यह सत्य जान पड़ता है तथा जो इस असत्य प्रपंच में सत्यके रूपसे सदा प्रकाशमान रहता है, उस भगवान का हम भजन करते हैं।

Avdhoot713

मनुष्य के स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं ।अतः न तो किसी की निंदा करता हूं और न स्तुति ही। मैं केवल इनका परम कल्याण और परमात्मा से एकता चाहता हूं।42