10.प्रह्लाद जी के राज्य अभिषेक और त्रिपुर दहन की कथा

नृसिंह ऊवाच

प्रहलाद! तुम्हारे जैसे मेरे एकांत प्रेमी इस लोक अथवा पर लोक की किसी भी वस्तु के लिए कभी कोई कामना नहीं करते। फिर भी अधिक नहीं केवल एक मन्वंतर तक मेरी प्रसंता के लिए तुम इस लोक में दैत्याधिपतियों के समस्त भोग स्वीकार कर लो।11

 समस्त प्राणियों के हृदय में यज्ञों के भोक्ता ईश्वर के रूप में मैं ही विराजमान हूं। तुम अपने हृदय में मुझे देखते रहना और मेरी लीला कथाएं, जो तुम्हें अत्यंत प्रिय है, सुनते रहना। समस्त कर्मों के द्वारा मेरी आराधना करना और इस प्रकार अपने प्रारब्ध कर्म का अक्षय कर देना।12

भोग के द्वारा पुण्य कर्मों के फल और निष्काम पुण्य कर्मों के द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देव लोक में भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्तिका गान करेंगे।13

तुम्हारे द्वारा की हुई मेरी स्तुति का जो मनुष्य कीर्तन करेगा और साथ ही मेरा और तुम्हारा स्मरण भी करेगा, वह समय पर कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाएगा।14

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