चित्रकेतु को पार्वती जी का शाप

चित्रकेतु उवाच

माता पार्वती जी! मैं बड़ी प्रसन्नता से अपने दोनों हाथ जोड़कर आपका साथ स्वीकार करता हूं। क्योंकि देवता लोग मनुष्य के लिए जो कुछ कह देते हैं वह उनके प्रारंभ अनुसार मिलने वाले फल की पूर्व सूचना मात्र होती है।17

देवी! यह जीव अज्ञान से मोहित हो रहा है और इसी कारण इस संसार चक्र में भटकता रहता है तथा सदा सर्वदा सर्वत्र सुख और दुख भोगता रहता है।18

माताजी !सुख और दुख को देने वाला न तो अपना आत्मा है और न कोई दूसरा। जो अज्ञानी है, वह ही अपने को अथवा दूसरे को सुख दुख का कर्ता माना करते हैं।।19

 यह जगत सत्व, रज आदि गुणों का स्वभाव प्रवाह है।इसमें क्या शाप,क्या अनुग्रह, क्या स्वर्ग, क्या नर्क और क्या सुख क्या दुख।20

एकमात्र परिपूर्णतम भगवान ही बिना किसीकी सहायताके अपनी आत्मस्वरूपिणी मायाके द्वारा समस्त प्राणियोंकी तथा उनके बन्धन, मोक्ष और सुख दुख की रचना करते हैं।21

माताजी!भगवान श्री हरि सब में समऔर माया आदि मल से रहित हैं। उनका कोई प्रिय अप्रिय, जाती बंधु, अपना पराया नहीं है। जब उनका सुख में राग ही नहीं है, तब उनमें रागजन्य क्रोध तो हो ही कैसे सकता है22

तथापि उनकी माया शक्ति के कार्य पाप और पुण्य ही प्राणियों के सुख-दुख हित अहित बंध मोक्ष,जन्म मृत्यु और आवागमन के कारण बनते हैं।23

 पतिप्राणा देवी! मैं शाप से मुक्त होने के लिए आपको प्रसन्न नहीं कर रहा हूं। मैं तो यह चाहता हूं कि आपको मेरी जो बात हम अनुचित प्रतीत हुई हो, उसके लिए क्षमा करें।24

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