Avdhoot713
मनुष्य के स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं ।अतः न तो किसी की निंदा करता हूं और न स्तुति ही। मैं केवल इनका परम कल्याण और परमात्मा से एकता चाहता हूं।42
यह त्रिगुणात्मक जगत मनकी कल्पना मात्र है। केवलयही नहीं परमात्मा और जगतसे पृथक प्रतीतहोनेवाला,पुरुषभी, कल्पनामात्र ही है। इस प्रकार वास्तव में असत होने पर भी अपने सत्य अधिष्ठान आप की सत्ता के कारण यह सत्य सा प्रतीत हो रहा है। इसलिए भोक्ता, भोग्य,दोनों के संबंधको सिद्ध करने वाली इंद्रिय आदि जितनाभी जगत है सबको आत्म ज्ञानी पुरुष आत्मरूप से सत्य ही मानते हैं। सोनेसे बने हुए कड़ेकुंडल आदि स्वर्णरुप ही तो है इसलिए उनको इस रूप में जानने वाला पुरुष उन्हें छोड़ता नहीं वह समझता है कि यह भी सोनाहैं। इसलिए
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